"दिल्ली के किसान आंदोलन में बिहार के किसान भी शामिल हों, क्योंकि इस क़ानून के तहत किसानों को एमसएपी कभी नहीं मिलेगा. इस क़ानून से सबसे अधिक बिहार के किसानों पर असर पड़ेगा. उन्हें बहुत नुकसान होने वाला है. इसलिए बिहार के किसानों से मेरी अपील है कि वे जागरूक हों, दिल्ली पहुंचें."
भारतीय किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढूनी ये बातें पटना के एक होटल में सोमवार को प्रेस कॉफ़्रेंस करके कह रहे थे.
भारत सरकार के तीन नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आंदोलन में एक बात जो बार-बार कही जा रही है, वो ये कि बिहार के किसानों को इन क़ानूनों से कोई समस्या नहीं है, इसलिए यहाँ के किसान आंदोलन में भाग नहीं ले रहे हैं.
बिहार देश का वह राज्य है जहाँ सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ कुल आबादी का 77 फ़ीसदी हिस्सा कृषि पर आश्रित है, जो पंजाब और उत्तर प्रदेश की तुलना में कहीं अधिक है. पंजाब में कृषि पर निर्भर आबादी का प्रतिशत 75 है जबकि उत्तर प्रदेश में यह 65 फ़ीसद है.
बावजूद इसके किसान आंदोलन में बिहार के किसानों की उल्लेखनीय भागीदारी नहीं है. बिहार के किसानों को संगठित और जागरूक करने के लिए पंजाब के किसान नेता यहाँ आकर प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर रहे हैं.
आज़ादी से पहले कई किसान आंदोलनों के जनक रहे राज्य बिहार में बीते कई बरसों में न तो कोई किसान संगठन सक्रिय दिखता है और न ही यहाँ के किसानों का कोई नुमाइंदा नज़र आता है.
बीबीसी ने अपनी इस रिपोर्ट में ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की:
- आख़िर क्या वजह है कि जिस राज्य की तीन चौथाई से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है, वहाँ आज कोई किसान नेता नहीं है?
- क्या बिहार के किसानों को इसकी ज़रूरत नहीं है या यहाँ किसानी से जुड़ी कोई समस्या ही नहीं है?