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विकल्प देने की तैयारी

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तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दिल्ली आकर जिस तेजी से विपक्ष के कई नेताओं से मिलीं, उससे यह साफ है कि वह विपक्षी एकता की अगुआई करते हुए दिखना चाह रही हैं। ममता बनर्जी पहले भी यह प्रदर्शित कर चुकी हैं कि वह विपक्ष को गोलबंद करने की क्षमता रखती हैं। वह इस गोलबंदी को तीसरा-चौथा मोर्चा कहने के बजाय संघीय मोर्चे के रूप में रेखांकित कर रही हैं। अभी यह स्पष्ट नहीं कि वह संघीय मोर्चे में कांग्रेस को स्थान देने के लिए तैयार हैं या नहीं, क्योंकि इस बारे में उन्होंने केवल इतना ही कहा कि अगर इस मोर्चे की ठीकठाक सीटें आ गईं तो कांग्रेस भी साथ देगी। ममता के ऐसे रवैये से यही संकेत मिलता है कि उन्हें राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्षी एकता स्वीकार नहीं। जो भी हो, यह तय है कि विपक्षी एकता के ऐसे प्रयास चलते ही रहने वाले हैं। हालांकि हाल के अतीत में ऐसे प्रयासों को सफलता नहीं मिली, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि आगे भी बात नहीं बनेगी। इतना अवश्य है कि केवल यह नारा प्रभावी नहीं होने वाला कि भाजपा (या कहें कि नरेंद्र मोदी) को सत्ता में आने से रोकना है। इस नारे के साथ विपक्षी दल एकजुट तो हो सकते हैं, लेकिन वे जनता को आकर्षित नहीं कर सकते। समाज और देश के उत्थान की कोई प्रभावी नीति और नजरिये के अभाव में विपक्षी एकता की कोशिश अवसरवाद के तौर पर ही देखी जाएगी। ऐसे अवसरवाद से जनता अब ऊब चुकी है। विपक्षी दलों को यह समझ में आ जाए तो बेहतर कि उन्हें देश की जनता को यह भरोसा दिलाने की जरूरत है कि उनके पास ऐसा एजेंडा है, जो कारगर साबित हो सकता है। अभी तो इस एजेंडे के नाम पर केवल इतना ही है कि भाजपा को रोकना है।इसमें दो-राय नहीं कि भाजपा जैसे प्रबल जनादेश के साथ केंद्र की सत्ता में आई, उसके अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर सकी है। इसी कारण आम जनता के बीच एक बेचैनी-सी है। लेकिन अभी ऐसे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता कि जनता उसके विकल्प की तलाश में जुट गई है और वह उसे विपक्ष में नजर आने लगा है। अगर भाजपा तमाम बुनियादी समस्याओं का प्रभावी समाधान नहीं खोज सकी और शासन-प्रशासन के तौर-तरीकों में आवश्यक बदलाव नहीं ला सकी तो विपक्षी दल भी अपने शासन वाले राज्यों में सुशासन की कोई नई इबारत नहीं लिख सके हैं। ऐसे दलों में तृणमूल कांग्रेस भी है। विपक्षी दलों के समक्ष एक बड़ी समस्या यह भी है कि राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर उनके पास न तो कोई स्पष्ट दृष्टिकोण दिखता है और न ही किसी तरह का न्यूनतम साझा कार्यक्रम। अंतरराष्ट्रीय मामले तो उनकी प्राथमिकता में ही नजर नहीं आते और वह भी तब जबकि ऐसे मामले देश को कहीं अधिक प्रभावित करते दिख रहे हैं। विपक्षी दलों के लिए भाजपा के खिलाफ एकजुटता की बातें करना तो आसान हो सकता है, लेकिन यह उन्हें ज्यादा दूर तक ले जाने में शायद ही सहायक हो। अच्छा होगा कि विकल्प देने को तैयार विपक्ष किसी वैकल्पिक एजेंडे के साथ सामने आए।


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