Home अभिमत सम्पादकीय क्या विपक्ष एकजुट हो पाएगा

क्या विपक्ष एकजुट हो पाएगा

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2019 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष की एकता के सूत्रधार जय प्रकाश नारायण नहीं होंगे। न ही 1989 जैसे हालात होंगे कि कोई वी.पी. सिंह जैसा प्रधानमंत्री चेहरा विपक्ष को मिल सकेगा। लालू प्रसाद जेल में, नीतीश कुमार मोदी खेमे में। शरद पवार अस्वस्थ, चंद्रबाबू नायडू पैकेज के इंतजार में। तेलंगाना के मुख्यमंत्री का राजनीतिक कद नहीं, ममता बनर्जी का एकता का स्वभाव नहीं। शरद यादव को नीतीश टिकने नहीं देंगे तो करुणानिधि बिस्तर से उठ नहीं पाएंगे। यू.पी. में मायावती पर विपक्ष को विश्वास नहीं और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव सिर्फ दो लोकसभा के उपचुनावों पर इठलाने लगे हैं। फिर अखिलेश जी अपने पिता मुलायम सिंह यादव से तो पूछ लें कि विपक्ष में नेता कौन होगा? कम्युनिस्ट राजनीति की ढलान पर और कांग्रेस धरातल की तलाश पर। दूसरी तरफ राजनीतिक क्षितिज पर चमक रहे दो सितारे, नक्षत्र बनते नजर आ रहे हैं। दक्षिण भारत के सिने स्टार रजनीकांत और कमल हासन नरेन्द्र भाई मोदी के निमंत्रण की प्रतीक्षा में हैं। स्वर्गीय जयललिता की पार्टी अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम बिखराव पर। उनकी सखा शशिकला नरेन्द्र भाई मोदी की शरण में, जेल में। विपक्ष यह भी तो जान ले कि 21 राज्य भारतीय जनता पार्टी के झंडे तले आ चुके हैं। कर्नाटक आने वाला है। बोलो, 2019 के लोकसभा चुनाव में है कोई मोदी को चुनौती देने वाला? मुझे लगता है विपक्ष को 2019 के चुनाव में 2014 की तनख्वाह पर ही काम करना पड़ेगा। संक्षेप में विपक्ष की एकता का गणित देख लेते हैं : राहुल गांधी प्लस सीताराम येचुरी या प्रकाश कारत बराबर हैं- 2019 तक इक्कठे न होना। लालू  प्रसाद यादव प्लस ममता बनर्जी प्लस शरद पवार प्लस शरद यादव प्लस तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव बराबर हैं- कभी हां, कभी न। सुश्री मायावती प्लस अखिलेश यादव बराबर हैं-अविश्वास यानी दूध का जला छाछ को भी फूंक मार-मार कर पीता है। हां, नरेन्द्र भाई मोदी इनके लिए सांझा डर हैं। डर आदमी को या राजनीति को जोड़ता नहीं, भगाता है। विपक्ष के सभी नेता मोदी से डरे हुए, सहमे हुए हैं। भागेंगे कि मिलेंगे? या डर के कारण की शरण लेंगे? 2019 के लोकसभा चुनाव तक तो किसी की समझ में नहीं आएगा। एकता-एकता का राग अलापते-अलापते सभी विपक्षी नेता बिखर जाएंगे। विपक्ष दुहाई दे रहा है-सारे राजनीतिक घटक तो एन.डी.ए. को छोड़ रहे हैं। शिवसेना गई, तेलुगू देशम गई, अन्नाद्रमुक गई, नैशनल कांफ्रैंस गई, पासवान जाने के बहाने तलाश रहे हैं। रहा कौन है एन.डी.ए.में? पंजाब का शिरोमणि अकाली या पूर्वांचल में छिटपुट नगण्य प्रादेशिक राजनीतिक दल? और कौन-सी पार्टी है जो मोदी के साथ रहना चाहती है? कोई नहीं। दूसरा आक्षेप विपक्ष मोदी पर यह आयद करता है कि मोदी ने देश में आर्थिक अव्यवस्था फैला दी है। नोटबंदी और जी.एस.टी. ने जरूरी चीजों को गरीब आदमी से छीन लिया है। और भी इल्जाम कि मोदी हिटलर की मानिंद सरकार और देश को चला रहे हैं। जीवनोपयोगी वस्तुओं की कीमतें आसमान को छूने लगी हैं। मान लो विपक्ष के आरोप सही हैं परन्तु जीत तो मोदी हर प्रदेश में रहे हैं। लोग तो मोदी से नाराज नहीं? चुनाव में जो जीता वही सिकंदर। फिर जीतने वाला अपना एजैंडा लागू करेगा कि नहीं? आरोप तो हारों से निराश नेता लगा रहे हैं। साधारण जनता 2019 में भी मोदी का ही साथ देगी। विपक्ष में ऐसा नेता ही नहीं है जिसे सभी  पाॢटयां स्वीकार कर लें। मोदी का विकल्प राहुल गांधी नहीं। राहुल को कांग्रेस बलात नेता बना रही है। विपक्ष के धुरंधर नेता किसी कीमत पर भी राहुल को विपक्ष का नेता मानने को तैयार नहीं। फिर एकता कैसी? 

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