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एक संतुलन की तलाश

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देश की उच्चतम अदालत में जारी सत्ता संघर्ष न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए उतना ही हानिकारक है जितना जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार के साथ इसकी तनातनी। जहां तक न्यायपालिका और कार्यपालिका (यानी सरकार) के बीच वर्तमान खींचतान का संबंध है, इस विषय में एक सुविदित पूर्व उदाहरण मौजूद है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर दोनों में से किसकी राय चलेगी। लेकिन जिस प्रकार माननीय जज व्यक्तिगत रूप में या गुटों की शक्ल में सार्वजनिक तौर पर भारत के मुख्य न्यायाधीश को बुरा-भला कह रहे हैं इसका कोई भी पूर्व उदाहरण मौजूद नहीं। पहले हम सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक समस्याओं पर चर्चा करते हैं क्योंकि अपना घर दुरुस्त किए बिना यह जजों की नियुक्ति के संबंध में सरकार के साथ विवाद में अपना दमखम दिखाने की योग्यता खो बैठेगी। जब न्यायपालिका के वरिष्ठ सदस्य ही भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखें और यह पत्र उन तक पहुंचने से पहले मीडिया में लीक कर दिए जाएं तो इससे न्यायपालिका की छवि को चार चांद कदापि नहीं लगते। वैसे तो हर असंतुष्ट सामान्यत: अपनी महत्वाकांक्षाओं को ‘संस्थान की चिंता’ जैसे लच्छेदार शब्दों के नीचे छिपाने की कोशिश करता है और ऐसा करने के लिए यह भी सुनिश्चित करता है कि कहीं इतिहास उसे कलंकित न कर दे। लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट के ताजा विवाद के चलते राजनीतिक तंत्र तथा वकील बिरादरी के कुछ धूर्त लोग जजों की गुटबाजी की लड़ाई में कूदने से खुद को रोक नहीं पाए हैं और इस टकराव का अपने दलगत हितों के लिए जमकर शोषण कर रहे हैं। बेशक मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखने का घटनाक्रम अपेक्षाकृत एक नया रुझान है तो भी सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठतम जजों द्वारा एक संवाददाता सम्मेलन में लगभग खुलेआम हल्ला बोलना न्यायिक मान-मर्यादा के घोर पतन का सूचक है। इससे पहले देश की उच्चतम अदालत में कभी भी जजों ने राष्ट्र की न्यायपालिका के प्रमुख के विरुद्ध इस प्रकार खुलेआम विद्रोह का झंडा नहीं उठाया। जज घटिया राजनीतिज्ञों की तरह व्यवहार करने की अय्याशी गवारा नहीं  कर सकते, अपनी अधूरी महत्वाकांक्षाओं से संबंधित अपनी भड़ास को अंसतुष्ट राजनीतिज्ञों जैसे ढंग से सार्वजनिक नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट के कालेजियम ने अपने ही एक वरिष्ठ सदस्य की एक जज को अपनी मूल हाईकोर्ट में स्थानातंरित करवाने की मांग को बार-बार रद्द किया तो यह बात अवज्ञा का कारण नहीं बननी चाहिए थी। हर रोज अपने शब्दों और कृत्यों से कई मुख्य न्यायाधीशों के बारे में उलटी-सीधी बातें करते हुए उसने उच्च न्यायपालिका की गरिमा को धूल धूसरित किया है। इससे इस जज महोदय की अपनी छवि कोई अच्छे रूप में सामने नहीं आती। वास्तव में यह एक तयशुदा बात है कि मुख्य न्यायाधीश ही ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ होता है, यानी कि कौन-सा मुकद्दमा किस जज को सौंपना है यह उसी की मर्जी पर निर्भर है। यदि इस मुद्दे पर वावेला मचाया गया है तो यह मुख्य न्यायाधीश के संवैधानिक पद को पलीता लगाने जैसी बात है। जो स्वयं प्रमुख नहीं बन सकते वे अपनी भड़ास निकालने के लिए मुख्य न्यायाधीश की शक्तियों को कमजोर करके ही सांत्वना हासिल करते हैं। कुछ जजों के लिए ‘अंगूर सचमुच खट्टे हैं।’ जहां तक जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार के साथ खींचातानी का सवाल है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। जब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी समझदारी और विवेक के अनुसार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द किया  तो इससे सरकार तथा न्यायपालिका के बीच खींचातानी शुरू हो गई थी। 3 दशक से भी अधिक समय तक कार्यकारिणी ही जजों की नियुक्ति के मामले में निर्णायक शक्ति रही थी। ऐसे में चाहिए तो यह था कि मतभेदों के समाधान के लिए कोई बीच का रास्ता तलाश किया जाता लेकिन न्यायपालिका ने जजों की नियुक्ति के लिए ‘मैमोरैंडम आफ प्रोसीजर’ (एम.ओ.पी.) का रास्ता अपनाया जिस पर अभी तक कोई फैसला नहीं हो पाया और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित धारा को लेकर जजों के मन में सरकार की नीयत के संबंध में आशंकाएं पैदा हो रही हैं। कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच अविश्वास ही रुकी हुई नियुक्तियों के मामले की जड़ है। इस मामले में माननीय जज सर्वशक्तिमान होने की अभिलाषा नहीं कर सकते। दुनिया के किसी भी कार्यशील लोकतंत्र में न्यायपालिका के पास इस प्रकार की शक्तियां नहीं हैं। इंदिरा गांधी ने जजों की नियुक्ति के संबंध में अपनी सर्वोच्च अधिकारिता का दुरुपयोग किया था और बिल्कुल यही दुरुपयोग न्यायपालिका की शक्ति छीन कर ले गया। इंदिरा गांधी की ज्यादतियों के बहाने न्यायपालिका नियुक्तियों की एकमात्र निर्णायक बनने का अनुरोध नहीं कर सकती। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच कहीं न कहीं संतुलन तलाश करना ही होगा।

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